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हरिशंकर परसाई और जीवन में विरोध

Writer's picture: Shaurya SaurabhShaurya Saurabh


 

अगर हरिशंकर परसाई आज जिंदा होते तो वह खूब कलपते। वह कहते "हम यह किस तरह के गिरे हुए समाज में जी रहे हैं"? वह जीवन भर कहते रह गए व्यंग्य के माध्यम से की इन मूर्खताओं को बंद करो। वह जाती के खिलाफ बोलते रहे, वह फूहड़ परंपराओं और दकियानूसी कर्मकांड के खिलाफ लड़ते रहे उन्होंने कभी अस्त्र नहीं उठाया, बल्कि उन्होंने अपनी भाषा को नोकीला किया और उसे ही अपना अस्त्र बनाया। वह जब लिख रहे थे तब जमाना था 1950 या 1960 का। 


काल तो बदल गया, 2024 है आज, पर मूर्खताएं वही की वही। हरिशंकर जीवन भर इस बात से विचलित रहे कि जब दो मनुष्य अपनी चेतना अनुसार, अपनी आयु अनुसार प्रेम करते हैं तो इस समाज को इतनी यातना क्यों होती है? वह इस सवाल से हमेशा विचलित रहे पर कोई जवाब ना मिला। मिलता भी कैसे? कर्मकांडित्व का कोई सिद्धांत नहीं होता, जाति का कोई सिद्धांत नहीं होता, वह बस एक खोखली मानसिकता है जिसे डंडे और समाज के डर के दाम पर फैलाया जाता है।

 

लोग यह भूल जाते हैं कि वह एक दार्शनिक भी थे, वह एक मार्मिक भी थे। बहुत छोटी उम्र में उन्हें दुनिया का मर्म दिखने लगा था। जिस उम्र में लोग नौकरी, छोकरी और सामाजिक स्वीकृति के पीछे दौड़ते भागते हैं उसे उम्र में हरिशंकर मुक्ति और मोक्ष के बारे में सोच रहे थे आपको लगेगा कि उनका मुक्ति और मोक्ष से क्या संबंध? क्योंकि आप उन्हें सिर्फ एक वव्यंग्कार के रूप में चित्रित कर रहे हैं जबकि उनकी हस्ती एक बहुत ऊंचे उद्देश्य को समर्पित थी, व्यंग मात्र उनका एक साधन भर था।



 

पर हमारे सड़े हुए समाज ने उस मार्मिक और दार्शनिक व्यक्ति को भी बस एक व्यंग्यात्मक आदमी का ही दर्जा दिया। उन्होंने खूब बोला है धन इकट्ठा करने वालों की मानसिकता पर, खूब बोला उन्होंने रिश्वतखोरों के विरुद्ध, खूब बोला उन्होंने पोंगे पंडितों के बारे में, पर हम उनका चरित्र सिर्फ एक व्यंगकार के रूप में ही सीमित कर देना चाहते हैं। 


हम नहीं चाहते कि उन्हें एक दार्शनिक और मार्मिक का दर्जा मिले। जब समाज का एक साधारण आदमी दार्शनिक हो उठता है तो सबसे ज्यादा समस्या उसके परिजनों को ही होने लगती है। जिन मनुष्यों को आपके साथ चलना चाहिए था वही आपके सबसे बड़े शत्रु बन उठेंगे, इस संसार को मानो जैसे कि दार्शनिकों से एक ऊब हो गई है। सुकरात और आदि शंकराचार्य इस समाज को फूटी आंख नहीं सुहाते। हमें तो चाहिए बस एक पढ़ा लिखा शादीशुदा इंसान जिसके दो छोटे-छोटे बच्चे हो और जिसकी समाज खूब प्रशंसा करें।

 

हरिशंकर परसाई का तो मानो जैसे जन्म ही इस समाज पर लानत भेजने के लिए हुआ था। किशोरावस्था से लेकर मौत तक वह लिखते रहे लगातार समाज की कुरीतियों और झूठ के खिलाफ। उन्होंने खूब मजाक बनाया उनका जो जाती देख कर शादी करते थे। उनका कहना था कि प्रेम किसी की जाति देखकर भी होता है क्या भला? और जो इंसान दूसरे की जाति देखकर प्रेम करें उसे तो जीने का हक भी नहीं प्रेम तो बहुत दूर की बात। और एक आज का महान भारत है। स्वयं-घोषित विश्वगुरु, जहां लड़का अगर स्टैनफोर्ड से पढ़कर भी आ जाए तो दहेज तो अवश्य लेगा।

 




जो सांस्कृतिक राष्ट्रवादी होंगे उन्हें हरिशंकर के नाम से चिढ़ मचती होगी। असल में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मानने वाले लोग बहुत फूहड़ और जाहिल किस्म के होते हैं। उनके हिसाब से मनुष्य जीवन सिर्फ संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए हुआ है, पर वह इतने बैल बुद्धि हैं की जिस संस्कृति को वह आगे बढ़ाना चाहते हैं उसका वह अवलोकन भी नहीं करते। दादा-दादी, मां-बाप और चाचा-चाची ने जो संस्कृति चटा दी वही कृष्णा तत्व हो उठता है। मानो जैसी की उनके लिए विरोध और बगावत उनके शब्दकोश में है ही न हो।

 

एक हरिशंकर का जमाना था जब अनपढ़ लोग इन मान्यताओं को सर चढ़ा कर रखते थे। एक मेरा जमाना है जहां डिग्री भी है, एजुकेशन भी है, डिप्लोमा भी है, डॉक्टरेट भी है, पर फूहडता छूटे न छूट रही। उनके जमाने में भी लोग आईएएस ऑफिसर अपनी धौंस चमकाने के लिए होना चाहते थे। मेरे जमाने में भी लोग सरकारी बंगले, सरकारी नौकर और लाल बत्ती के लिए बन रहे हैं। उनके जमाने में भी अगर कायस्थ लड़की ब्राह्मण लड़के से शादी कर ले तो समाज बौखला उठता था और एक मेरा जमाना है जब दो ब्राह्मण लोग भी शादी कर ले तो बवाल कट सकता है सिर्फ इस बात पर कि उनके 36 गुण नहीं मिल रहे। 


सवाल मेरा बस इतना है की इन 70 सालों में बदल क्या? उस समय जातिवाद की समस्या को अज्ञानता, अनपढ़ता और फूहड़ता पर थोप देते थे। अब तो जातिवाद को राष्ट्रवादी लोगों ने सामाजिक स्वीकृति भी दे दी है, कहते हैं दो अलग जाति के लोग जब संतान को जन्म देंगे तो वह संतान नर्क में जाएगी क्योंकि इंटरकास्ट मैरिज प्रभु की आशाओं के विरुद्ध है। यह वो मूर्ख और जाहिल लोग हैं जिन्होंने जीवन में ना एक वेदांत, ना एक उपनिषद, न कबीर का एक दोहा पढ़ा, पर इन्हे संपूर्ण विश्वास है कि प्रभु की आशाएं वही होंगी जो यह बता रहे हैं।

 

युवा उस समय भी याचना का पत्र था आज भी याचना का पात्र है। उस समय भी बड़े बूढ़ों की सीख थी कि दबकर जियो और आज के बूढ़े लोग भी वही निर्देश देते हैं। विद्रोह और बगावत जैसे शब्दों को सुनकर तो आज के सामाजिक लोगों की पेंट ही गीली हो जाती है जैसे। 


पता उन्हें भी है कि समाज घटिया, दमित और गंदा है पर उसे वह किसी सामाजिक और सांस्कृतिक भोज के तले झेल रहे हैं। पहले कम से कम धरातल पर थे अब तो रसातल है, मिलो मिल सिर्फ रसातल। हरिशंकर ने करीब 50 साल तक लगातार लिखा और फिर प्रभु को प्यारे हो गए। हो सकता है मैं भी लिखता लिखता मर जाऊं पर यह दो कौड़ी का समाज टस से मस नहीं होगा। 



हरिशंकर जी कहा करते थे कि इस देश की आधी ऊर्जा शहनाई, विदाई और रुलाई में जा रही है। मैं कहता हूं इस देश की आधी ऊर्जा यूपीएससी, शहनाई और विदाई में जा रही है। सत्य, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण जैसे शब्द इस समाज को बहुत ही दो कौड़ी के लगते हैं। इस समाज के लिए ऊंचे शब्द हैं: नौकरी, पैसा, दहेज, शादी, जाति, परंपरा, कर्मकांड, गोत्र, कुंडली और इज्जत। अगर हरिशंकर आज जिंदा होते तो बहुत रोते।


उनकी आत्मा उन्हें इतना कचोटती कि वह जी नहीं पाते। दम तो हमारा भी घुट रहा है पर हम बेहोश लोग हैं, उनमे थोड़ा होश था। अगर जीवन को ऊंचा बनाने का उद्देश्य गलती से भी हो तो हरिशंकर जी को जरूर पढ़िएगा इस समाज से ऊब जाएंगे पर ऊपर भी उठ जाएंगे। जय श्री राम।।

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